यादों के दीपक

सिरहाने के तकिये में जब ओस कमल की खो जाती है
राह भटक कर कोई बदली, बिस्तर की छत पर छाती है
लोरी के सुर खिडकी की चौखट के बाहर अटके रहते
और रात की ज़ुल्फ़ें काली रह रह कर बिखरा जाती हैं

तब सपने आवारा होकर अम्बर में उडते रहते है
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

बिम्ब उलझ कर जब संध्या में, सूरज के संग संग ढलते हैं
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

पनघट की सूनी देहरी पर जब न उतरती गागर कोई
राह ढूँढती इक पगडन्डी रह जाती है पथ में खोई
सुधियों की अमराई में जब कोई बौर नहीं आ पाती
बरगद की फ़ुनगी पर बौठी बुलबुल गीत नहीं जब गाती

और हथेली में किस्मत के लेखे जब बनते मिटते हैं
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

इतिहासों के पन्नों में से चित्र निकल जब कोई आता
रिश्तों की कोरी चूनर से जुड जाता है कोई नाता
पुरबाई जब सावन को ले भुजपाशों में गीत सुनाये
रजनीगन्धा की खुशबू जब दबे पाँव कमरे तक आये

और क्षितिज पर घिरे कुहासे में जब इन्द्रधनुष दिखते हैं
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

8 comments:

Sunil Deepak said...

"बिम्ब उलझ कर जब संध्या में, सूरज के संग संग ढलते हैं
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं"
मन में ध्यान आया शाम को काम से साइकल पर घर लौटते समय, डूबते सूरज में बीते दिनों की परछाईयों को खोजना. आप की आवाज़ नहीं सुनी पर लगा यह कविता पढ़ नहीं, सुन रहा हूँ. दिल को छू गयी.

Anonymous said...

बिम्ब उलझ कर जब संध्या में, सूरज के संग संग ढलते हैं/
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

बहुत अच्छी लगीं ये लाइनें!

राकेश खंडेलवाल said...

जब बीते कल के चित्रों में बदलाव न कर पाती कूची
तब आँखों में लहराती है बस एक अधूरी वह सूची
जिसमें उलझे हैं नाम- काम, जिनके बीजों को रोपा था
पर अंकुर वे दिन बीत चले प्रस्फ़ुटित नहीं हो पाते हैं.

आभार सहित

अनूप भार्गव said...

हमेशा की तरह अनूठे बिम्बों और कल्पनाओं से सजी आप की यह कविता बहुत अच्छी लगी ।

Udan Tashtari said...

तब सपने आवारा होकर अम्बर में उडते रहते है
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

बिम्ब उलझ कर जब संध्या में, सूरज के संग संग ढलते हैं
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं


--वाह, राकेश भाई. इसे जरा गाकर एम पी ३ में भी लगाया जाये.

Manish Kumar said...

अतिसुंदर !

Unknown said...

बहुत सुन्दर!!

पुरानी किताबों के बीच जब कुछ हल्की लिखाई दिखती है
कुछ लम्हों के साये फैले धुँधले से दिखते हैं
वो गीत पुराना कोई जब रेडियो पर बजने लगता हैं
रंगों में कोई खास रंग जब मुझको अलग सा दिखता है

जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

Dr.Bhawna Kunwar said...

राकेश जी बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बहुत-बहुत बधाई.

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