वह हो गया स्वयं परिभाषित

यद्यपि कर न सका है ये मन
कभी समय की परिभाषायें
साथ तुम्हारे जो बीता है
वह हो गया स्वयं परिभाषित

उगी भोर जब अँगनाई में
पाकर के सान्निध्य तुम्हारा
शहदीले हो गये निमिष सब
पल पल ने छेड़ी बाँसुरिया
किरन तुम्हारे दर्शन का पा
पारस परस, सुनहरी हो ली
फूलों पर लाकर उंड़ेल दी
नभ ने ओस भरी गागरिया

प्राची ने खिड़की के परदे
हटा निहारा जब नदिया को
लहर लहर में गोचर तब थी
सिर्फ़ तुम्हारी छवि सत्यापित

अरुणाई हो जाती बदरी  
पाकर परछाईं कपोल की
पहन  अलक्तक के गहने को
संध्या हुई और सिन्दूरी
सुईयाँ सभी घड़ी की उस पल
भूल गईं अपनी गति मंथर
निर्निमेष हो अटक गई, तय
कर न सकी सूत भर दूरी

अनायास ही चक्र समय का
ठिठक रहा तुमको निहारता
चित्र दृष्टि ने खींच दिया जो
नहीं स्वप्न में था अनुमानित

3 comments:

Padm Singh said...

मोहक !

प्रवीण पाण्डेय said...

न शब्द कह पाते हैं और न ही स्वप्न, प्रत्यक्ष न जाने कितने अध्याय सुना देता है उनके।

Udan Tashtari said...

अनायास ही चक्र समय का
ठिठक रहा तुमको निहारता
चित्र दृष्टि ने खींच दिया जो
नहीं स्वप्न में था अनुमानित


गज़ब!!

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