सुनो सुनयने ! शब्द नहीं अब लिखते गीत तुम्हारा कोई
इसीलिये रख दी है मैने आज ताक पर कलम उठा कर

मिलते जितने शब्द आजकल मुझे राह में चलते चलते
सब के सब क्षतिग्रस्त और हैं पहने हुये पीर के गहने
कातरता के उमड़े बादल रहते सदा नयन के नभ पर
तार तार हो चुकी भावनाओं के केवल चिथड़े पहने

भाव सभी लुट चुके मार्ग में इस जंगल में चलते चलते
शायद यही नियति है रहते बार बार खुद को समझाकर

टूटी हुई मात्राओं की बैसाखी पर बोझ टिका कर
चलना दूभर, चार प्रहर अब खड़े नहीं होने पाते हैं
ठोकर खा गिर पड़े स्वरों का उठना संभव हुआ नहीं है
सभी अनसुने रहे गीत वे मौन सुरों में जो गाते हैं

मरुथल से उठ रहे चक्रवातों की गति में उलझा सा मन
बार बार लौटा करता है परिधियों पर चक्कर खा कर

बदले हुये समय ने बदला शब्दों के सारे अर्थों को
उपमायें सब व्यर्थ हो गईं अलंकार बिखरे नदिया तट
काजल,कुमकुम और अलक्तक चूड़ी,कँगना,तगड़ी,पायल
शेष नहीं है शब्दकोश में ना तो पनघट ना वंशीवट

बिसराये सब पेड़ नीम के, पीपल के , वे इमली वाले
जिनकी छाँव सुला देती थी एक दुपहरी को थपका कर

बेसुर इक हो चुकी बाँसुरी के छिद्रों से बही हवा का
परिचय कितना हो पाता है सारंगी के भटके सुर से
दीवारें खिंच गईं गली के मोड़ों पर जो अनचाहे ही
उनसे टकराया करते हैं अकुलाहट में वे भर भर के

गिर जाते हर बार फ़िसल कर तारों की करवट छूते ही
कितनी बार कोशिशें की हैं बोल सकें कुछ तो अकुलाकर

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

काश वही उत्साह जगे अब शब्दों में..

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