बना अंतरा एक गीत का

मन के कोरे पृष्ठों को जब हस्ताक्षर मिल गया तुम्हारा
बिखरी हुई कहानी बँध कर ग्रन्थ बन गई एक प्रीत का
 
टुकड़े टुकड़े अंश अंश में वाक्य अधूरे आधे ही थे
कोई बिन्दु नहीं था ना ही चिह्न कोई भी था विराम का
कल के वासी अखबारों में छपे हुए मौसम का विवरण
जैसा था अधलिखा कथानक, नहीं किसी के किसी काम का
 
जब से छूकर गई तुम्हारी दृष्टि अधूरी पड़ी इबारत
अनायास ही लय में बँध कर बना अंतरा एक गीत का
 
मुद्राओं के बिन वटवे सा था छाया मन में खालीपन
सन्नाटे घेरे रहते थे परिचय के सारे तारों को
भटक भटक कर अभिलाषायें लौटीं थकी शून्य सँग लेकर
जिसके बस में नहीं जगाये सुप्त नींद में, झंकारों को
 
पर जब मेरा नाम तुम्हारे स्वर में रँग अधरों से फ़िसला
वह कारण बन गया सहज ही, खामोशी की बातचीत का
 
जिनसे रही अपरिचित अनुभव की अब तक की अर्जित पूँजी
वह अनुभूति तरंगें बन कर लगी दौड़ने आ नस नस में
सँवरी पुष्पवाटिकायें अनगिनती इक सूनी क्यारी में
मधुरस पूरित गंध घुल गई जीवन के हर पल नीरस में
 
मौसम की मुस्कान सजीली अँजी दिवस के नयनों में आ
निशिगंधा ने दिन में खिल कर किया चलन इक नई रीत का-

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

संकेत बाँध जाते हैं बहकते भावों को..

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