नाम थी आज की सभ्यता लिख गई

इक सड़क के किनारे पे बिखरे पड़े
फ़्रेन्च फ़्राई के कन्टेनरों पे छपा
नाम थी आज की सभ्यता लिख गई
कोशिशें की बहुत,पर नहीं पढ़ सका
 
 
विश्व पर्यावरण दिन मनाया था कल
खूब नारे लगे खूब जलसे हुये
रोक लगना जरूरी, न दूषण बढ़े
बात उछली हवाओं में चलते हुये
रिक्त पानी की बोतल गिरीं पंथ में
चिप्स के बैग बन कर पतंगें उड़े
हर डगर पर यही चिह्न छोड़ा किये
पांव चलते हुये जिस तरफ़ भी मुड़े
 
 
स्वर उमड़ता हुआ करता उद्घोष था
भोर से सांझ बीती,नहीं पर थका
 
 
एक टुकड़ा हरी घास बाकी रहे
एक आँजुरि रहे स्वच्छ जल की कहीं
अगली पीढ़ी को देनी विरासत हमें
लेवें संकल्प अस्मर्थ हंवे नहीं
बस यही सोच ले, कैन थी हाथ में
कोक की पेप्सी और स्प्राईट की
खाली होते किनारे उछाला उन्हें
बात उनके लिये यह सहज राईट थी
 
 
ध्यान से मैं मनन अध्ययन कर रहा
पर समझ आ नहीं पाया ये फ़लसफ़ा
 
 
दीप तो बाल कर रख लिया शीश पर
पर तले का अंधेरा न देखा तनिक
दृष्टि दहलीज के बार जब भी गयी
अंश था काल का एक ही वह क्षणिक
जिस नियम को बनाने का जयघोष था
मात्र वे सब रहे दूसरों के लिये
उनके आगे कभी आ न दर्पण सका
सोच के वे बदलते रहे जाविये
 
 
दायां कर एक उपदेश की मुद्रिका
बायें से खेलते है नियति से जुआ.
 

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

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