गीत की गरिमा भुला दूँ

बह रहे हैं शब्द आवारा निरंकुश काव्य जग में
यह नहीं स्वीकार मुझको गीत की गरिमा भुला दूँ

उड़ रही हैं पंख के बिन अर्धकचरी कल्पनाये
पद्य का ओढ़े मुखौटा ,कुछ हृदय  की भावनाएं
संतुलित तो भाव हो ना पाए, बस दे नाम कविता
भीख मांगी जा रही मिल जाए थोड़ी वाहवाहैं 

जो उड़ेले जा रहे तरतीब के बिन शब्द सन्मुख
है नहीं स्वीकार मुझको, मैं उन्हें कविता बता दूँ 

दूर कितनी चल सके हैं शब्द अनुशासन नकारे
बह सकेगी देर कितनी तोड़ कर नदिया किनारे
लय गति और ताल से हो विमुख कविताये विरूपित
कोशिशें कर ले भले कितनी छलावों के सहारे

बुलबुलो में जो बने वे चित्र टंकते भीत पर क्या
मानते हो तुम तो आओ आज में भ्रम को मिटा दूं

छिन्नमस्ता मूर्तियां कब मंदिरों में सज सकी है
छंदमुक्ता पद्य कृति कब याद की सीढी चढ़ी है
जो सहज सम्प्रेष्य होता, शब्द वह लय में बंधा है
साक्ष्य में यह बात गीता और मानस ने कही है

तर्क है यदि कुछ तुम्हारा,म तो बहो कुछ देर ले में 
सत्य खुद तुमसे कहेगा आओ मैं दर्पण  दिखा दूँ 

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