क्या पता कल का सवेराधुंध की चादर लपेटे
या सुनहली धूप के आलिंगनों में जगमगाये
या बरसते नीर में
भीगा हुआ हो मस्तियों में
जानता यह
तो
नही मन, किन्तु है सपने सजाये
स्वप्न, अच्छा दिन रहेगा आज के अनुपात में कल
आज का नैराश्य संध्या की ढलन में ढल सकेगा
आज की पगडंडियां कल राजपथ सी सज सकेंगी
और नव पाथेय पथ के हर कदम पर सज सकेगा
राह में अवरोध बन कर डोलती झंझाये कितनी
और विपदाएं हजारों जाल है अपना बिछाये
नीड का
संदेश कोई
सांझ ढलती ला सकेगी
जानता यह भी नही मन स्वप्न है फिर भी सजाये
उंगलियां जो मुट्ठियों में थाम कर चलते रहे हैं
आस की चादर बिछाई जिस गगन के आंगनों में
धूप के वातायनों तक दौड़ती पगडंडियों पर
क्या घिरेंगे शुष्क बादल ही बरसते सावनों में
प्रश्न उठते हैं निरंतर भोर में, संध्या निशा में
और कोई चिह्न भी न उत्तरों का नजर आये
शून्य है परिणाम में या है अभीप्सित वांछित कुछ
जनता यह भी नहीं मन, स्वप्न है फिर भी सजाये
No comments:
Post a Comment