गीत बनने से पहले बिखरते रहे

आपका ये तकाजा लिखूँ गीत मैं
छंद बनने से पहले बिखरते रहे

अक्षरों के लगा पंख उड़ न सके
भाव बैठे थे अनुभूति की शाख पर
मन की खिड़की पे लटकी हुईं चिलमनें
देख पाये न बाहर तनिक झांक कर
ज्यों गिरा नैन बिन, नैन वाणी बिना
भाव शब्दों बिना, शब्द भावों कटे
एक जुट हो कभी वाक्य बन न सके
शब्द सारे रहे हैं गुटों में बँटे

और अभिव्यक्तियों के निमिष, आँख की
कोर पर आये, आकर पिघलते रहे

शब्द को चूमने को हुई आतुरा
लेखनी पॄष्ठ के पंथ पर है खड़ी
भावनाओं की परवाज को बाँध कर
झनझनाती है बिखराव की हथकड़ी
जो अलंकार हैं उनको आवारगी
ले गई साथ अपने कहीं दूर ही
उठ न पाई है बिस्तर से उपमा कोई
साँझ आलस से थक कर हुई चूर थी

दंश तीखे दिये जा रही व्याकरण
जोकि सीधे ह्रदय में उतरते रहे


फिर ये सोचा लिखूँ, नाव, नदिया कमल
फूल जूही के साया अमलतास का
रंग सिन्दूर का, स्वर्ण प्राची के पल
और सम्बन्ध आशा से विश्वास का
गागरी भर तॄषा, आंजुरि तॄप्ति को
प्रीतमय दॄष्टि की अनवरत साधना
डूब ॠतुगंध में मुस्कुराती हुइ
गुनगुनाती हुई एक शुभकामना

पर कलम की गली पूर्ण निर्जन रही
रेत के बस बगूले उमड़ते रहे

लिख न पाया तो सोचा कि गाऊं मैं, मन
की अंधेरी गुफ़ाओं की आवाज़ को
सरगमों के रुदन को जो पीता रहा
सांस की पीर के एक उस साज को
अनकही रह गई अधखुले होंठ पर
थरथराती हुई एक सौगन्ध को
प्राण ने चेतना से कभी था किया
एक अव्यक्त अभिप्राय अनुबन्ध को

थाम पाये न झंकार की बाँह स्वर
तार की अलगनी पर फ़िसलते रहे

सांकलों में घिरी याद की कोठरी
कोई चाबी नहीं खोल ताले सके
घुट अंधेरे में बैठी हैं अंगनाईयां
ताक पर सारे जाकर उजाले टँगे
नीम की छांह दीवार ने छीन ली
सावनों के अधर उग रही प्यास है
जिसकी सोचा कि थामूँ तनिक उंगलियां
राह भटका हुआ वो भी मधुमास है

पूजते हम रहे पंचमी को मदन
और आशाओं के पात झरते रहे

टूटने लग गई सांस की लय-गति
ताल धड़कन की बेताल होने लगी
दायरे में घिरीं भावना से परे
अर्थ अनुभूतियां आज खोने लगीं
स्वर विमुख हो गया, शब्द आया नहीं
और विद्रोह भाषा किये जा रही
राग छूटे, न गंधें हवा में उड़ीं
स्पर्श में कोई पांखुर नहीं आ रही

हम समर्पित किये जा रहे अब कलम
शब्द जिससे निगाहें बदलते रहे

4 comments:

Udan Tashtari said...

अब बार बार क्या कहें...बस इतना कहे देते है कि शब्द नहीं मिल रहे. बहुत खूब...वाह वाह!!!

सुनीता शानू said...

गुरूदेव ये ठीक है हम आपकी तरह निपुण नही है मगर क्या बात है हमारा जिक्र तक आजकल आपकी चिट्ठा-चर्चा में नही आता…कहीं कोई भूल हुई हमसे या आप ही अपने शिष्यों को भूल गये है…

ज्यों गिरा नैन बिन, नैन वाणी बिना
थौडा सा समझ नही आया…
बहुत अच्छा लगा गीत मगर यही पक्तिं समझ नही आ रही…
शानू

राकेश खंडेलवाल said...

आपका प्रश्न था व्यख्या के लिये:

ज्यों गिरा नैन बिन, नैन वाणी बिना

गिरा = जिव्हा, जीभ, जुबान

जैसे जिव्हा जो बखान कर सकती है वह देख नहीं सकती और जो नयन देख सकते हैं वे बयान बहीं कर सकते.( किसी सौन्दर्य को देख सकने वाले नयन उसका विवरण नहीं दे सकते और सौन्दर्य को विवरण में बाँधने वाली वाणी उस सौन्दर्य को देख कर अनुभूत नहीं कर सकती, इसलिये उस सौन्दर्य का न्यायोचित बखान असंभव है.) उसी प्राकर शब्द( निर्जीव) जो व्यक्त करते हैं वह भाव (जीव)को अनुभूत नहीं कर सकते और जो भाव अनुभूत होते हैं उनके पास शब्द नहीं होते स्वयं को प्रकाशित करने के लिये

Anonymous said...

भाव यह सभी कल फिर गीतों में ढ़लेंगे
करलो प्रण कि मैं इन्हें उर में सेता रहूँगा
और
जो कहीं गीत आपके बिखर छंद हो भी गये
मैं सदा संज्ञा मुक्तक की उन्हें देता रहूँगा

रिपुदमन पचौरी

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