ज़िन्दगी प्रश्न करती रही

ज़िन्दगी प्रश्न करती रही नित्य ही
ढूँढ़ते हम रहे हल कोई मिल सके
हर कदम पर छलाबे रहे साथ में
रश्मि कोई नहीं साथ जो चल सके

कब कहाँ किसलिये और क्यों, प्रश्न के
चिन्ह आकर खड़े हो गये सामने
सारे उत्तर रहे धार में डूबते
कोई तिनका न आगे बढ़ा थामने
दिन तमाशाई बन कर किनारे खड़े
हाशिये पर निशायें खड़ी रह गईं
और हम याद करते हुए रह गये
सीख क्या क्या हमें पीढ़ियां दे गईं

तेल भी है, दिया भी न बाती मगर
दीप्त करते हुए रोशनी जल सके

बस अपरिचित पलों की सभायें लगीं
जिनसे परिचय हुआ वे चुराते नजर
सारे गंतव्य अज्ञातवासी हुए
पांव बस चूमती एक पागल डगर
हो चुकी,गुम दिशायें, न ऊषा जगी
और पुरबाई अस्तित्व को खो गई
सांझ अनजान थी मेरी अँगनाई से
एक बस यामिनी आई,आ सो गई

हैं प्रहर कौन सा, छटपटाते रहे
एक पल ही सही, कुछ पता चल सके

कामनायें सजीं थीं कि ग्वाले बनें
हम बजा न सके उम्र की बाँसुरी
गीत लिख कर हमें वक्त देता रहा
किन्तु आवाज़ अपनी रही बेसुरी
द्वार से हमने मधुमास लौटा दिया
और उलझे रहे स्वप्न के चित्र में
अपने आंगन की फुलवाड़ियां छोड़ कर
गंध खोजा किये उड़ चुके इत्र में

अब असंभव हुआ जो घिरा है हुआ
यह अंधेरा कभी एक दिन ढल सके

7 comments:

राजीव तनेजा said...

राकेश जी नमस्कार,

कविता की मुझे समझ नहीं है ..इसलिए बार-बार आपकी कविता को पढा...

"जो समझ आया वो यह कि.. मौके उज्जवल हमें बार-बार मिलते रहे और हम उन्हें चूकते रहे"

अगर मुझे समझने में भूल हुई है तो वो हुई है अज्ञानता वश...

उम्मीद है इसके लिए आप क्षमा कर देंगे

Rachna Singh said...
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Rachna Singh said...

excellent composition and selection of words rakesh . every emotion is crystal clear
अब असंभव हुआ जो घिरा है हुआ
यह अंधेरा कभी एक दिन ढल सके
thse 2 lines say every thing
i liked this poem very much
http://mypoemsmyemotions.blogspot.com/2007/08/blog-post_6863.html
त्रासदी

मर के भी जिंदा रहते है
हम अपने रिश्तों मे
पर जब रिश्ते मर जाते है
हम ना जिंदा रहते है
ना मरे हुए कहलाते है

बालकिशन said...

सुंदर! अति सुंदर! शब्दों का चित्रण और भावों की अभीव्यक्ति कमाल की है.

Dr.Bhawna Kunwar said...

ज़िन्दगी प्रश्न करती रही नित्य ही
ढूँढ़ते हम रहे हल कोई मिल सके
हर कदम पर छलाबे रहे साथ में
रश्मि कोई नहीं साथ जो चल सके.


राकेश जी बहुत खूबसूरत लगी ये पंक्तियाँ बहुत-बहुत बधाई...

नीरज गोस्वामी said...

राकेश जी
चकित हूँ आप की रचना पढ़ के. भाव और शब्दों का विरल मिश्रण किया है आप ने.
बहुत ही सुंदर कविता के लिए मेरी और से ढेरों बधाई
नीरज

Sajeev said...

द्वार से हमने मधुमास लौटा दिया
और उलझे रहे स्वप्न के चित्र में
अपने आंगन की फुलवाड़ियां छोड़ कर
गंध खोजा किये उड़ चुके इत्र में

अब असंभव हुआ जो घिरा है हुआ
यह अंधेरा कभी एक दिन ढल सके
वाह , कितना सुंदर चित्रण है आपका, हमेशा की तरह

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...