बढ़ रहे हैं हर डगर में आजकल कोहरे घनेरे
और धुंधले हो रहे हैं कल्पना के चित्र मेरे
रह गये हैं आज स्मॄति की पुस्तकों के पॄष्ठ कोरे
खोल कर पट चल दिये हैं शब्द आवारा निगोड़े
अनुक्रमणिका से तुड़ा सम्बन्ध का हर एक धागा
घूमते अध्याय सारे बन हवाओं के झकोरे
ओढ़ संध्या की चदरिया, उग रहे हैं अब सवेरे
और धुंधले हो रहे हैं कल्पना के चित्र मेरे
हैं पुरातत्वी शिलाओं के सरीखे स्वप्न सारे
अस्मिता की खोज में अब ढूँढ़ते रहते सहारे
जुड़ न पाती है नयन से यामिनी की डोर टूटी
छटपटाते झील में पर पा नहीं पाते किनारे
हैं सभी बदरंग जितने रंग उषा ने बिखेरे
और धुंधले हो रहे हैं कल्पना के चित्र मेरे
भित्तिचित्रों में पिरोतीं आस कल जो कल्पनायें
आज आईं सामने लेकर हजारों वर्ज़नायें
व्यक्तता जब प्रश्न करती हाथ में लेकर कटोरा
एक दूजे को निहारें, लक्षणायें व्यंजनायें
शेष केवल मौन है जो दे रहा है द्वार फेरे
और धुँधले हो रहे हैं कल्पना के चित्र मेरे
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4 comments:
satik varnan,bahut sundar rachana hai.kalpana ke chitra waqt ke saath saach mein dhundhale ho jate hai.
शेष केवल मौन हैजो दे रहा है द्वार फैरे । राकेश जी इतना अच्छा लिखेंगें तो कैस्ो चलेगा हम लोग कहां से लिख पाऐंगें इतना अच्छा ।
रह गये हैं आज स्मॄति की पुस्तकों के पॄष्ठ कोरे
खोल कर पट चल दिये हैं शब्द आवारा निगोड़े
अद्भुत राकेश जी अद्भुत रचना है ये आप की.शब्दों और बिम्बों का प्रयोग सर्वथा नया और दिल को छू लेने वाला है. मन अति प्रसन्न हो गया पढ़ कर. लिखते रहें. मुम्बई में काव्य गोष्टी के दौरान समीर लाल और देवी जी से आप के बारे में बात हुई आप का संदेश भी मिला वहाँ तभी पता लगा की आप कितनों के अपने हैं.
नीरज
rakesh jee -
तूलिका के तूल से जब मुग्ध हैं प्रिय मित्र
कहाँ धुंधले हो रहे है कल्पना के चित्र ?
-rgds - manish
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