शाख के पत्र सब नॄत्य करने लगे
पांखुरी पांखुरी साज बन कर बजी
क्यारियों में उमड़ती हुई गंध आ
रुक गई एक दुल्हन सरीखी सजी
पर्वतों के शिखर से उतर कर घटा
वादियों में नये गीत गाने लगी
आपकी ओढ़नी का सिरा चूम जब
एक झोंका हवा का हुआ मलयजी.
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नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
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हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
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प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
5 comments:
क्या बात है राकेश भाई....बहुत खूब....
नीरज
Bahut sunder.
ek achchii abhivyakti
बधाई हो आपको इस रचना के लिये । अंधेरी रात का सूरज का पूरा कच्चा माल मेरे पास आ चुका है अब बस एक काम आप अवश्य करें कि आपकी एक तस्वीर जो कि हाई रेसोल्यूशन में हो कम से कम 300 डीपीआई की मुझे तुरंत मेल कर दें क्योंकि विज जी ने आपका फोटो शायद ब्लाग से उठा लिया है जो कि कम डीपीआई का होने के कारण उसके ग्रेन्स छपाई के दौरान फट जाऐंगे । कृपया अपनी तस्वीर जल्द भेजें ।
ओढ़नीको चूमकर आते मलयजी झोंके मुझे भी सराबोर कर गए हैं ! इस रेशमी एहसास की सुंदर अभिव्यक्ति के लिए बधाई !
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