एक ही चित्र में रंग जब भर दिये, तूलिका ने ढली सांझ अरुणाई के
कालनिशि के तिमिर में नहाई हुई भाद्रपद की अमावस की अँगड़ाई के
फूल की गंध के प्रीत के छन्द के, तो लगा आपका चित्र वह बन गया
बोलने लग गये रंग सरगम बने ढल गये गूँज में एक शहनाई के
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नव वर्ष २०२४
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14 comments:
फागुन मे रंग ही तो बोलते सुनाई देते है .
राकेश जी आप तो अभी से रंगीन हो गये । कविता बहुत ही अच्छी लगी।
:)
निःशब्द !!!!
एक मुक्तक ने कमाल कर डाला..वाकई अद्भुत!! बहुत खूब!!
फाल्गुनी रंगों का संगीत पूरे ब्रहमांड में अमन लाए।
"बोलने लग गये रंग सरगम बने ...."-:)
आपके स्कूल में आये हैं रंग, नहीं बोलेंगे तो आप उन्हें फ़ेल ना कर देंगे :) इसी डर से बोलने लगे वे बेचारे !!!
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प्रश्न-प्रश्न : हमने हाथ उठा लिया है , और पूछ रहे हैं :) एक बात बताइये गुरुजी, ऊपर वाली दोनों पक्तियों में तो बस सांझ और रात है, सुबह और दोपहर को भूल गए गीतकार जी :) या फिर हमारे समझने में ही कोई गड़बड़ है !
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Goes without saying ... You are the ultimate ... आपकी मंजूषा से एक और मोती ! पर अब ये बार बार नहीं लिखूंगी बहुत phony सा लगता है :)
गुरुजी,
अब ई-कविता पे आपकी रचनाओं पे टिप्पणी नहीं करूँगी, थोड़ा वहाँ के खतों की संख्या तो कम होगी :) पर आपके चिठ्ठे पे आपसे और आपके पाठकों से अग्रिम क्षमा माँग रही हूँ. थोड़ी साधारण समझ है मेरी, इसलिए कई बार कुछ पूछना पड़ता है, कुछ सीखना होता है, किसी चीज़ की खुल के प्रशंसा करनी होती है. इन सब के चलते टिप्पणियाँ कुछ लम्बी हो जातीं हैं :) आशा है आप लोग धैर्य ना खोयेंगे :)
सादर शार्दुला
शार्दुलाजी
आपके प्रश्न का उत्तर
रंग रक्ताभ जब ले लिये सांझ ने, भोर के पास कुछ शेष न रह गया
दोपहर श्वेत ही वस्त्र पहने रही कैनवस आ मुझे बात था कह गया
इसलिये रंग जिनमें बचे ही नहीं तूलिका कैसे लाती उन्हें मांग कर
रात के रंग ने रँग दिये हैं चिकुर, फ़्रेम ईजिल से ये बात फिर कह गया
अद्भुत!
बहुत सुंदर .... होली की ढेरो शुभकामनाएं।
आदरणीय भाई साहब,
सादर-नमस्कार।
सतरंगी होली आपको व आपके सारे परिवार को खुशियों से भर दे...
सुनीता
आज भी बस अरुण और श्याम हैं या कुछ और रंग भी हैं कविराज के पास :)
होली का प्रणाम , आपको सपरिवार !
नमन !
रस फुहार चहुं ओर है
क्यों सूखा ये गाँव?
धार बहे ना गीत की
ना मिले छंद की नाव !
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