तुम भी दे जाओ पीड़ायें

नीलकंठिया कह कर जग ने दिया हलाहल हमें भेंट में
है आभार तुम्हारा भी यदि तुम भी दे जाओ पीड़ायें

जागी हुई भोर ने केवल विष में बुझे तीर संधाने
सूरज की किरणें ले आईं उपालंभ जाने पहचाने
पल के  आक्षेपों की उंगली, रही केन्द्रित एक हमीं पर
दोषारोपण की दोशाला गये उढ़ा जाने अनजाने

अभिलाषा के दीप सांझ की चौखट तक भी पहुँच न पाये
दोपहरी से रहीं ताक में उन्हें बुझाने तेज हवायें

वयसंधि पर पूजा वाले दीपक ने भी पांव जलाये
यज्ञ कुण्ड की आहुतियों से उमड़े बस संशय के साये
मंत्र रहे अभिशापित सारे जितने आन चढ़े अधरों पर
लेने हविष न उतरा कोई हमने कितने देव बुलाये

टूट बिखर रह गये तार से सरगम के स्वर जो भी सा्धे
फूटी नहीं कंठ से वाणी कितनी भी कोशिश की, गायें

रहे मिटाते हाथों की रेखाओं को पल फ़िसले फ़िसले
आंसू रहे तड़पते नयनों की देहरी को छोड़ न निकले
शब्दों के सांचे से दूरी बढ़ती रही भावनाओं की
बन कर आगत आये सम्मुख भुले हुए दिवस सब पिछले


अक्षम होकर पांव ठिठक कर पीछे ही रह गये राह में
यों तो गतिमय रहे निरन्तर,साथ साथ दिन के चल पायें



6 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

जीवन को आशावादिता का वरदान है, कितने भी थके हों उत्साह की बयार मिलती ही है।

पारुल "पुखराज" said...

वयसंधि पर पूजा वाले दीपक ने भी पांव जलाये....

अनूठे ढंग से कही आपने बात

अमिताभ मीत said...

बहुत दिनों बाद पढ़ रहा हूँ ब्लौग ....

हमेशा की तरह कमाल .... गुरुदेव !!

संजय भास्‍कर said...

"ला-जवाब" जबर्दस्त!!

रंजना said...

आपकी रचनाओं के रसास्वादन के उपरान्त कुछ कहने योग्य मनःस्थिति रहती नहीं...

अद्वितीय !!!!

(कुछेक टंकण त्रुटियाँ रह गयीं हैं,कृपया सुधार लें)

Shardula said...

सादर प्रणाम...कलश रिक्त क्यों ?

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