एक द्वार था केवल जिससे अटकी हुई अपेक्षायें थीं
जीवन के उलझे गतिक्रम ने उसके भी पट बन्द हो गये
कथा एक ही दुहराई है हर इक दिन ने उगते उगते
आक्षेपों के हर इक शर का लक्ष्य हमीं को गया बनाया
जितने भी अनकिये कार्य थे वे भी लिखे नाम पर अपने
बीजगणित का सूत्र अबूझा रहा,तनिक भी समझ न आया
कभी किसी से स्पष्टिकरण की चर्चायें जैसे ही छेड़ीं
अनायास ही अधर हमारे पर अनगिन प्रतिबंध हो गये
नयनों के दर्पण तो दिखलाते ही रहे बिम्ब जो सच थे
पता नहीं कैसे भ्रम ने आ उन पर भी अधिकार कर लिया
शेष नहीं था मार्ग इसलिये नीलकंठ के अनुगामी हो
जो कुछ मिला भाग में अपने, हमने अंगीकार कर लिया
किन्तु न जाने छिन्दर्न्वेषी समयचक्र की क्या इच्छा थी
निर्णय सभी हवा के पत्रों पर अंकित अनुबन्ध हो गये
बन कर छत्र निगलता आया दिनकर परछाईं भी अपनी
लहरें रहीं बहाती पग के नीचे से सिकता को पल पल
दिशा बोध के चिह्न उड़ाकर सँग ले गईं दिशायें खुद ही
लगा रूठने निमिष निमिष पर धड़कन से सांसों का संबल
तुलसी पत्रों गंगाजल की रही तोड़ती दम अभिलाषा
विमुख स्वयं ही से अब जितने अपने थे सम्बन्ध हो गये