दिशाओं पर इबारत

लाज ने हर बार रोके शब्द चढ़ने से अधर पर
दृष्टि छूते ही नयन की देहरी को झुक गई है
प्राप्त मुझको हो गये सन्देश सब उड़ती हवा से
कंठ की वाणी जिन्हें उच्चार करते रुक गई है
 
स्वप्न जो संवरे नयन में, मैं उन्हें पहचान लूंगा
भाव की आलोड़नायें हो रहीं जो, जान लूंगा
 
शब्द की बैसाखियां क्या चाहते संबंध अपने
बिन कही संप्रेषणा के बन रहे आधार हम तुम
कोई परिभाषा नहीं,जो सूत्र हमको बांधता है
फूल-खुश्बू,धार-नदिया, शाख से हो कोई विद्रुम
 
मैं तुम्हारी छांव को परछाईं अपनी मान लूंगा
भावना की टेर को मैं सहज ही पहचान लूंगा
 
जब अकेली सांझ लिखती है दिशाओं पर इबारत
बादलों ने शब्द बन तब नाम लिक्खा है हमारा
कंपकंपाती दीप की लौ ने स्वयं को तूलिका कर
रात की कजराई में बस चित्र अपना ही निखारा
 
मैं हमारी अस्मिता का प्राप्त कर अनुमान लूँगा
जो तुम्हारी है उसी को मीत अपनी मान लूंगा

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

संग रहेंगे,
जीवन भर अब,
बहते रस
और रंग रहेंगे।

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