दीप दीपावली के सजें न सजें

दीप दीपावली के सजें न सजें
ये अंधेरे नहीं शेष रह पायेंगे
तुम जरा मुस्कुरा दो प्रिये एक पल
दीप अँगनाई में खुद ही जल जायेंगे

भोर नित ही उगाती रही सूर्य को
सांझ ढलते अंधेरा मगर आ घिरे
अनवरत चल रहे चक्र के आज तक
कोई भी थाम पाया नहीं है सिरे
आओ अब इक नई रीत को जन्म दें
फ़िर न रह पाये मावस अंधेरी यहाँ
मुस्कुराती रहे चाँदनी से सजी
दोपहर सी गली हो सजे नित जहाँ

नागिनी नृत्य से ये निशा के चिकुर
चाँद की रश्मियाँ बन सँवर जायेंगे
तुम जरा मुस्कुरा दो प्रिये एक पल
दीप अंगनाई में खुद ही जल जायेंगे

रोशनी की किरन एक पल न थकी
तम की सत्ताओं से युद्ध करते हुये
तम कुचलता हुआ सिर उठाता रहा
आदि से आज तक यूँ ही चलते हुये
आज रच लें नई नीतियां कर जतन 
जो अंधेरे का बाकी नहीं शेष हो
एक क्षण के लिये भी नहीं रुक सके
शंख से  गूँजकर अब जो जयघोष हो

ये तुम्हारे ही इंगित से संभव प्रिये
पृष्ठ इतिहास के सब बदल जायेंगे
तुम जरा मुस्कुरा दो प्रिये एक पल
दीप अंगनाई में खुद ही जल जायेंगे

कार्तिकी एक तिथि की प्रतीक्षा बिना
दीप के पर्व हर रोज मनता रहे
भोर दीपक जलाये जो कल आ यहाँ
काल के अंत तक यूँ ही जलता रहे
शब्दकोशों से मिट कर तिमिर अब रहे
आओ ऐसे प्रयासों को मिल कर करें
मिट्टियों के नहीं ज्ञान के दीप हम
देहरी पर हर इक ज़िन्दगी की धरें

आंजुरि में सजे आज  संकल्प तो
कुछ असंभव नहीं शेष रह पायेंगे
तुम जरा मुस्कुरा दो प्रिये एक पल
दीप अंगनाई में खुद ही जल जायेंगे

1 comment:

Rajendra kumar said...

आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (10.11.2015) को "दीपों का त्योंहार "(चर्चा अंक-2156) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ, सादर...!

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