संभव है इतिहास आज जो कल फिर वो इतिहास न रहे
संभव है मुस्काते फूलों की पाँखुर में वास न रहे
संभव् है कल छंदों के अनुशासन से कट कर आवारा
घूमे शब्दो की कविता में अलंकार अनुप्रास न रहे
संभव् है कल छंदों के अनुशासन से कट कर आवारा
घूमे शब्दो की कविता में अलंकार अनुप्रास न रहे
यही सोच कर आज सामने खुले समय के इन पृष्ठों पर
अपने और तुम्हारे संबंधों की गाथा लिख देता हूँ
अपने और तुम्हारे संबंधों की गाथा लिख देता हूँ
श्रुतियों में संचित है कितने युग के कितने मन्वंतर के
उगकर ढलते हुए दिवस के पल पल पर घटती घटनाएं
उन्हें प्रकाशित करते करते वाणी करती मूक समर्पण
रह जाती हैं बिना धूप की छुअन किये ही कई ऋचाएं
उगकर ढलते हुए दिवस के पल पल पर घटती घटनाएं
उन्हें प्रकाशित करते करते वाणी करती मूक समर्पण
रह जाती हैं बिना धूप की छुअन किये ही कई ऋचाएं
संभव है वाणी कल श्रुति की, शब्दों में मुखरित ना होवे
यही सोच कर आज उन्हें मैं, अपने शब्द दिये देता हूँ
जगन्नाथ से ले पुरूरवा, विश्वामित्र भाव ह्रदयों के
बाजीराव, कैस, रांझे के अन्तर्मन की बोली सरगम
बहती है हर उड़ी हवा के झोंको की उंगली को पकड़े
पार खिंची हर सीमारेखा को करने का करती उद्यम
संभव है कल कहीं भटक कर रह जायें नभ के जंगल में
यही सोचकर आज दिशा का निर्देशन मैं दे देता हूँ
वासवदत्ता से शकुन्तला, दमयन्ती से सावित्री तक
व्रुन्दा के कुन्जों में खनकी पैंजनियाँ राधा के पग की
रति, तिलोत्तमा, चित्रा, रंभा और उर्वशी, मुदित मेनका
के स्पर्षों से कितनी मन की संवरी हुई कल्पना दहकी
संभव है अनुभूति लिये बिन इनकी, उगे सुबह कल आकर
यही सोच कर आज गीत में मैं अभिव्यक्त किये देता हूँ
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